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जब इलाज बिज़नेस बन गया: भारतीय डॉक्टर और दवाइयों का ओवरडोज़

11/6/2025

भारत में डॉक्टर को हमेशा भगवान का दर्जा दिया गया है। एक समय था जब मरीज डॉक्टर के पास भरोसे के साथ जाता था, और डॉक्टर इलाज में इंसानियत ढूंढता था। लेकिन आज के दौर में इलाज एक “सेवा” से ज़्यादा “सिस्टम” बन चुका है — जहाँ हर पर्ची के पीछे किसी दवा कंपनी का नाम, किसी कमीशन की गंध या किसी लक्ष्य की गिनती छिपी होती है।आज अगर किसी को हल्का बुखार या सर्दी-ज़ुकाम हो जाए, तो डॉक्टर की पर्ची में कम से कम पाँच दवाइयाँ मिलना आम बात है।

उदाहरण के तौर पर एक साधारण सर्दी-जुकाम में डॉक्टर Azithromycin 500 mg (एंटीबायोटिक), Cetirizine (एलर्जी की दवा), Paracetamol (बुखार कम करने की गोली), Pantoprazole (गैस की दवा) और कभी-कभी Multivitamin capsules (जैसे Becosules) लिख देते हैं।

लेकिन सच यह है कि इनमें से आधी दवाइयाँ केवल “फिलर” होती हैं यानी जरूरी नहीं, पर पर्ची को “भरा हुआ” दिखाने के लिए जोड़ी गई होती हैं।

ऐसा नहीं है कि डॉक्टर को जरूरत का अंदाजा नहीं होता। असल वजह है फार्मा कंपनियों का दबाव और कमीशन सिस्टम। बहुत से मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव (MR) हर महीने डॉक्टरों से मिलते हैं और कहते हैं “सर, इस महीने हमारी दवा के 50 प्रिस्क्रिप्शन हो जाएँ तो अगली कॉन्फ्रेंस की फ्लाइट आपकी।” कुछ कंपनियाँ डॉक्टरों को गिफ्ट, डिनर, या विदेश यात्रा का ऑफर भी देती हैं। ऐसे में कई डॉक्टर मरीज के फायदे से ज़्यादा अपने टारगेट के बारे में सोचते हैं।

मरीज को लगता है कि जितनी ज़्यादा दवा, उतनी जल्दी आराम। वो नहीं जानता कि कई बार सिर्फ Paracetamol और आराम ही काफी होता है। लेकिन डॉक्टर के लिहाज़ से, एक “बड़ी” पर्ची ज़्यादा भरोसेमंद लगती है। इसी सोच ने आज इलाज को एक “कंज्यूमर प्रोडक्ट” बना दिया है।

कई बार तो डॉक्टर छोटी बीमारी में भी अनावश्यक एंटीबायोटिक्स दे देते हैं जैसे खांसी या गले में दर्द के लिए सीधा Augmentin 625 mg (Amoxicillin + Clavulanic acid) लिख देना, जबकि ज़रूरत सिर्फ गरम पानी, भाप और आराम की होती है।Antibiotic का गलत इस्तेमाल न केवल शरीर की इम्यूनिटी को कमजोर करता है, बल्कि “Antibiotic Resistance” भी पैदा करता है यानी भविष्य में वही दवा असर करना बंद कर देती है।

और सिर्फ एंटीबायोटिक ही नहीं, आजकल हर प्रिस्क्रिप्शन में Pantoprazole (Acidity की दवा) डाल दी जाती है भले ही मरीज को पेट की कोई दिक्कत न हो। वजह यह कि दवा के साथ “सुरक्षा का दिखावा” किया जा सके।कुछ डॉक्टर हर मरीज को Vitamin D3 (जैसे D-Rise 60K) या Calcium tablets (जैसे Shelcal 500) भी दे देते हैं, जबकि ज्यादातर लोगों में इसकी कमी बिना टेस्ट के मान लेना गलत है।

इन सबके बीच असली नुकसान मरीज का होता है। लगातार दवाइयाँ लेने से शरीर की लिवर और किडनी पर असर पड़ता है। बहुत से लोग बताते हैं कि लंबे समय तक दवाइयाँ खाने से उन्हें कमजोरी, गैस, नींद न आना या उलझन जैसी परेशानी होती है। ये सब “ओवर-ट्रीटमेंट” का नतीजा है।

असल में, हर बीमारी के पीछे एक वजह होती है और कई बार वो लाइफस्टाइल में छिपी होती है। पर डॉक्टर के पास इतना समय नहीं होता कि वो मरीज से पूछे कि वो दिन में कितना पानी पीता है, कितनी नींद लेता है या उसका खानपान कैसा है। सबसे आसान रास्ता है गोली दे दो।

मरीज भी यह सोचकर खुश हो जाता है कि डॉक्टर ने उसे “फुल ट्रीटमेंट” दिया है।लेकिन क्या इलाज यही है?क्या सर्दी-ज़ुकाम या सिरदर्द के लिए हर बार गोली ही जरूरी है?कई बार एक कप गरम सूप, कुछ नींद और सादा खाना भी वही काम कर सकते हैं जो एक पूरी स्ट्रिप दवाइयाँ नहीं कर पातीं।

हर डॉक्टर बुरा नहीं है। आज भी हजारों ऐसे डॉक्टर हैं जो मरीज की हालत समझकर सटीक और कम दवा में इलाज करते हैं। वो सच में सेवा करते हैं, न कि बिज़नेस। लेकिन कुछ गिने-चुने लालची डॉक्टरों ने इस पेशे की पवित्रता को दागदार कर दिया है।

अब वक्त आ गया है कि मरीज भी जागरूक बने। डॉक्टर पर भरोसा रखो, लेकिन आँख मूँदकर नहीं। अगर किसी बीमारी के लिए ज़रूरत से ज़्यादा दवाइयाँ दी जा रही हैं, तो दूसरे डॉक्टर से राय लो। हर दवा का नाम गूगल करो, उसका काम समझो। और सबसे जरूरी अपने शरीर की सुनो, न कि सिर्फ डॉक्टर की पर्ची की।