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श्राद्ध की सच्चाई: क्या सच में पितृ प्रसन्न होते हैं?
9/20/2025


भारत विविध परंपराओं, प्राचीन अनुष्ठानों और गहरी आध्यात्मिक मान्यताओं की भूमि है। इन्हीं में से एक परंपरा है पितृ पक्ष, जो हिंदू पंचांग में एक विशेष स्थान रखती है। यह सोलह चंद्र दिनों की वह अवधि होती है जब लोग अपने पूर्वजों को भोजन, जल और प्रार्थना के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। श्रद्धालु मानते हैं कि इन कर्मों से मृत आत्माओं को शांति मिलती है और जीवित लोगों को आशीर्वाद प्राप्त होता है। लेकिन श्रद्धा और भक्ति के इस बाहरी आवरण के पीछे एक ऐसा चेहरा भी है पाखंड, व्यावसायीकरण और अंधानुकरण, जो इस अनुष्ठान की सच्ची भावना को ढक देता है। आज के विज्ञान और तर्क के युग में यह सवाल उठता है कि क्या हम सच में अपने पूर्वजों का सम्मान कर रहे हैं, या केवल भय और सामाजिक दबाव के चक्र में फंसे हुए हैं।
पितृ पक्ष का उल्लेख महाभारत, गरुड़ पुराण और अन्य पुराणिक ग्रंथों में मिलता है। ऐसा माना जाता है कि इन सोलह दिनों के दौरान पूर्वजों की आत्माएँ पृथ्वी लोक पर उतरती हैं ताकि अपने वंशजों को आशीर्वाद दे सकें। इन दिनों किए जाने वाले कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है, जिसमें विशेष भोजन बनाना, तर्पण (जल अर्पण) करना और ब्राह्मणों व गरीबों को भोजन या वस्त्र दान देना शामिल होता है। इस परंपरा का मूल उद्देश्य बहुत ही सरल और गहरा था पूर्वजों के त्याग के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना, जरूरतमंदों के साथ भोजन बाँटकर समाज में समरसता फैलाना, और जीवन की नश्वरता तथा परिवार की निरंतरता को याद दिलाना। प्राचीन समय में ये कर्म केवल रीतियाँ नहीं थे, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक जागरूकता का प्रतीक थे। लेकिन समय के साथ इनकी गहराई कम होती गई और वे कठोर परंपराओं में बदल गईं, जहाँ आध्यात्मिकता की जगह केवल औपचारिकता रह गई।
आज लोग पितृ पक्ष इसलिए निभाते हैं क्योंकि उन्हें डराया गया है। पंडितों और धार्मिक प्रचारकों ने वर्षों से शाप और दुर्भाग्य की कहानियाँ सुनाकर इस परंपरा को ज़िंदा रखा है। कहा जाता है कि यदि श्राद्ध नहीं किया गया तो पितृ असंतुष्ट रहेंगे, घर में बीमारियाँ और आर्थिक नुकसान होंगे, और आने वाली पीढ़ियाँ पितृ दोष झेलेंगी। इन मान्यताओं ने लोगों के मन में एक ऐसा मनोवैज्ञानिक जाल बुन दिया है, जिससे वे डर या अपराधबोध में आकर ये कर्म करते हैं। पूर्वजों के प्रति प्रेम से नहीं, बल्कि सज़ा के डर से किए गए कर्मकांड इस परंपरा का सबसे बड़ा ढोंग बन चुके हैं।
आज धर्म और आस्था भी एक व्यापार बन चुके हैं, और पितृ पक्ष इसका बड़ा उदाहरण है। पंडित श्राद्ध कराने के तय रेट रखते हैं, “प्रीमियम पैकेज” तक उपलब्ध होते हैं। दुकानों में विशेष सामग्री और वस्त्र ऊँचे दामों पर बिकते हैं, जबकि ट्रैवल एजेंसियाँ गया, प्रयागराज या वाराणसी जैसे तीर्थों की श्राद्ध यात्राएँ आयोजित करती हैं। यह सब मिलकर पितृ पक्ष को एक आर्थिक लेन-देन बना देता है, जहाँ आत्मिक शांति पैसों में खरीदी जाती है। पहले जहाँ यह सादगी और स्मरण का अवसर था, अब यह दिखावे और मुनाफे का अवसर बन गया है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि लोग अपने माता-पिता और बुजुर्गों को जीते-जी अनदेखा करते हैं, पर उनके मरने के बाद भव्य श्राद्ध करवाते हैं। जो संतान अपने माता-पिता की सेवा नहीं करती, वही उनकी मृत्यु के बाद पंडितों को भोज करवाकर आत्मशांति ढूँढती है। जो परिवार ज़मीन-जायदाद के लिए लड़ते हैं, वही दिखावे के लिए साथ बैठकर कर्मकांड करते हैं। जो अपने गरीब रिश्तेदारों की मदद नहीं करते, वही कौओं और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। यह क्रिया और भावना के बीच कि दूरी ही असली पाखंड है। अगर प्रेम और कृतज्ञता सच्ची है, तो उसे जीते-जी दिखाना ही सच्ची श्रद्धा है।
विज्ञान और तर्क यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या कौओं को खिलाया गया भोजन सच में आत्माओं तक पहुँचता है? क्या एक कटोरा चावल और जल किसी अदृश्य लोक तक जा सकता है? इसका कोई प्रमाण नहीं है। फिर भी लोग इसे बिना सोचे दोहराते हैं, क्योंकि समाज में यह परंपरा तोड़ना “अपशकुन” माना जाता है। यही अंधभक्ति का सबसे खतरनाक रूप है, जहाँ सवाल पूछना भी पाप समझा जाता है। परंतु सच्ची आध्यात्मिकता डर में नहीं, बल्कि समझ में बसती है। पूर्वजों का सम्मान कर्मकांडों से नहीं, बल्कि उनके मूल्यों को जीकर, उनकी यादों को सहेजकर और समाज की सेवा करके किया जा सकता है।
पितृ पक्ष का ढोंग त्यागना हमारी संस्कृति को त्यागना नहीं है। बल्कि यह उसकी मूल भावना कृतज्ञता की ओर लौटने का आमंत्रण है। हम अपने पूर्वजों का सम्मान इस तरह कर सकते हैं कि जब हमारे माता-पिता जीवित हों, तब उनके साथ समय बिताएँ, उनके प्रति प्रेम और देखभाल जताएँ। उनके नाम पर शिक्षा, स्वास्थ्य या समाज सेवा में योगदान दें। परिवार का इतिहास, पुरानी कहानियाँ और परंपराएँ आगे की पीढ़ियों तक पहुँचाएँ। और सबसे बढ़कर, प्रकृति की सेवा करें, पेड़ लगाएँ या पशुओं को भोजन दें क्योंकि यही सच्चा पुण्य है, जो न किसी नदी में बहाने से मिलता है, न किसी पंडित के आशीर्वाद से।
हमारे समाज में सामाजिक दबाव भी एक बड़ा कारण है कि लोग श्राद्ध को निभाते हैं। बहुत से लोग खुद विश्वास नहीं करते, पर “लोग क्या कहेंगे?” या “अपशकुन मत बुलाओ” जैसी बातों के डर से परंपराएँ निभाते हैं। यह भावनात्मक दबाव एक ऐसी जंजीर बन चुका है जो भक्ति को दिखावे में बदल देता है। पितृ पक्ष, जो कभी अंतरात्मा का विषय था, अब समाजिक प्रदर्शन का साधन बन गया है।
युवा पीढ़ी इस पूरे द्वंद्व में फँसी है। एक ओर वह परंपरा का सम्मान करना चाहती है, दूसरी ओर वह विज्ञान और तर्क के आधार पर इन कर्मकांडों पर सवाल उठाती है। इस कारण वे आधे मन से, केवल परिवार को खुश रखने के लिए, अनुष्ठान कर लेते हैं। यह आधुनिक भारत की सांस्कृतिक स्थिति को दर्शाता है , जहाँ परंपरा और तर्क आमने-सामने खड़े हैं।
पितृ पक्ष का एक और पहलू इसका पर्यावरणीय प्रभाव है। हर साल बड़ी मात्रा में भोजन और सामग्री नदियों में बहाई जाती है, जिससे जल प्रदूषण होता है। प्लास्टिक प्लेटें, गैर-बायोडिग्रेडेबल सामग्री और बाकी कचरा जलजीवों को नुकसान पहुँचाता है। यह विडंबना है कि जिन पूर्वजों के नाम पर हम कर्मकांड करते हैं, उसी प्रकृति को नष्ट करते जा रहे हैं, जिसने उन्हें जीवन दिया था।
फिर भी, यह समझना ज़रूरी है कि लोग इन परंपराओं से पूरी तरह गलत इरादे से नहीं जुड़ते। श्राद्ध जैसे अनुष्ठान भावनात्मक रूप से शांति देते हैं। यह किसी प्रियजन को याद करने और उनसे जुड़ाव महसूस करने का एक माध्यम होता है। परिवार का इकट्ठा होना, भोजन अर्पित करना और मंत्र पढ़ना ये सब मनोवैज्ञानिक रूप से दिल को सुकून देते हैं। लेकिन जब यही कर्मकांड मजबूरी, दिखावे या व्यापार बन जाते हैं, तब यह भक्ति नहीं, पाखंड रह जाती है।
पितृ पक्ष की सच्ची भावना आज भी जीवित की जा सकती है, यदि हम उसमें से भय, व्यापार और दिखावा हटा दें। यह हमें जीवन के कुछ गहरे सबक सिखाता है — कि हमें अपने पूर्वजों का आभार मानना चाहिए, यह समझना चाहिए कि जीवन अस्थायी है और रिश्ते धन से अधिक महत्वपूर्ण हैं, और यह कि समाज में सौहार्द और समानता बनाए रखना ही सच्ची सेवा है।
पितृ पक्ष कभी भी भय का बाज़ार या सामाजिक प्रतिस्पर्धा का उत्सव नहीं था। यह तो जीवन की अस्थिरता और कृतज्ञता की याद दिलाने का सरल अवसर था। लेकिन आज दुर्भाग्य से ढोंग ने भक्ति को ढक लिया है। लोग जीवित माता-पिता की उपेक्षा करते हैं, नदियाँ प्रदूषित करते हैं, और ब्राह्मणों को खिलाकर आत्मशांति ढूँढते हैं। सच्ची श्रद्धांजलि यह नहीं कि हम कौओं या पंडितों को भोजन दें, बल्कि यह कि हम करुणा से जिएँ, परिवारिक मूल्यों को सहेजें, प्रकृति की रक्षा करें और जरूरतमंदों की मदद करें।