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समाज का दोहरा चरित्र: लिंग आधारित भेदभाव क्यों?

10/28/2025

हमारे समाज में एक गहराई से जड़ जमाए हुए दोहरे मापदंड मौजूद हैं खासकर जब बात आती है यौन इच्छाओं और भावनात्मक ज़रूरतों की। बचपन से ही लड़के और लड़कियों को अलग-अलग नज़रिए से देखा जाता है।

लड़कियों को आज के समय में अपनी जिज्ञासा व्यक्त करने, अपनी भावनाओं को समझने और नज़दीकी संबंधों की तलाश करने की आज़ादी दी जा रही है लेकिन लड़कों के साथ ऐसा नहीं है। जब कोई लड़का वही भावनाएँ या अपनापन चाहता है समाज उसे तुरंत “शारीरिक भूखा”, “वासना-प्रधान” या “चरित्रहीन” कहकर जज करने लगता है। यह केवल समाज का पूर्वाग्रह नहीं है, बल्कि मानव स्वभाव की गलत समझ भी है।

लड़कों की इच्छाओं को अक्सर सिर्फ़ शारीरिक ज़रूरत मान लिया जाता है, जबकि उनके भीतर भी भावनाओं और मनोवैज्ञानिक जुड़ाव की गहराई छिपी होती है। नतीजा यह होता है कि एक पूरी पीढ़ी ऐसे लड़कों की बनती है जो अपनी भावनाएँ दबाते हैं, खुद को गलत समझे जाने का बोझ ढोते हैं और भीतर ही भीतर टूटते रहते हैं।

बचपन से लड़कों को सिखाया जाता है कि वे मज़बूत बनें, भावनाएँ न दिखाएँ, और ज़िम्मेदार बनें। ये बातें भले ही मजबूती सिखाने के लिए हों, लेकिन धीरे-धीरे वे अपने ही भावनात्मक पहलू को नकारना सीख जाते हैं। समाज जब उनकी स्वाभाविक इच्छाओं को “केवल शारीरिक” मानकर ठुकरा देता है, तो उनके भीतर एक लगातार चलने वाला संघर्ष जन्म लेता है।

वे प्यार, अपनापन और नज़दीकी चाहते हैं लेकिन डरते हैं कि कहीं कोई उन्हें गलत न समझे। यही डर उन्हें भावनात्मक रूप से ठंडा, असंतुष्ट और अकेला बना देता है। इस दोहरे मापदंड के परिणाम बहुत गहरे हैं। जो लड़के अपनी भावनाएँ दबाते हैं, वे अक्सर शर्म और अपराधबोध महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी भावनाएँ “गलत” या “अनुचित” हैं।

धीरे-धीरे यही भावनात्मक दमन उन्हें अकेलापन, चिंता, और आत्मसम्मान की कमी की ओर धकेल देता है। एक साधारण गले लगना, देखभाल भरी छुअन, या भावनात्मक बातचीत ये सब उनकी मन की भूख मिटा सकते हैं, लेकिन समाज इन बारीकियों को समझने से इंकार करता है। लड़के जब अपनापन चाहते हैं, तो उन्हें “कमज़ोर” या “वासना-प्रधान” कहा जाता है, जबकि यह सिर्फ़ उनकी इंसानियत की अभिव्यक्ति होती है।

कुछ वास्तविक उदाहरण इस सच्चाई को और स्पष्ट करते हैं।

रवि, 22 साल का एक कॉलेज छात्र, अपने साथी से भावनात्मक नज़दीकी चाहता है। जब वह गले लगने या स्नेह जताने की बात करता है, तो लोग कहते हैं “उसे तो बस शारीरिक चीज़ें चाहिए।” लेकिन उसकी मंशा भावनात्मक होती है।

इसी तरह अनिल, 25 साल का एक प्रोफेशनल, अपने प्यार को खुलकर व्यक्त करना चाहता है, लेकिन समाज के डर से वह सब कुछ भीतर दबा लेता है। धीरे-धीरे उसकी यह चुप्पी उसे अंदर से थका देती है। असल में, लड़कों की इच्छाएँ भी भावनाओं और सुरक्षा की ज़रूरत से जुड़ी होती हैं। वे भी प्यार, स्वीकार्यता और अपनापन चाहते हैं।

उनकी यौन इच्छा सिर्फ़ शरीर तक सीमित नहीं होती, बल्कि उसमें आत्मीयता और मन की शांति का जुड़ाव होता है। जब यह भावनात्मक पक्ष अधूरा रह जाता है, तो भीतर एक खालीपन और बेचैनी जन्म लेती है। सिर्फ़ शारीरिक संबंध उस शून्य को नहीं भर पाते, और यही अधूरापन उनके जीवन का स्थायी हिस्सा बन जाता है। यह दोहरा मापदंड इतिहास, संस्कृति और शिक्षा की कमी से उपजा है।

सदियों तक पितृसत्तात्मक सोच ने पुरुष को “आक्रामक, वासना-प्रधान और नियंत्रक” के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि स्त्रियों को “संयमी और पवित्र” माना गया। आज भी यह सोच बदलने में समय लग रहा है।लड़कों को यह सिखाया जाता है कि वे “भावनाओं की बात” न करें, वरना उन्हें “कमज़ोर” समझा जाएगा। पर सच यह है कि भावनाएँ छिपाना कमजोरी नहीं, बल्कि आत्म-पीड़ा का कारण है। यह गलतफहमी रिश्तों को भी प्रभावित करती है।

जब लड़के अपने मन की बात कहने से डरते हैं, तो रिश्तों में दूरी बढ़ती है। उनका एक साधारण स्नेह का इशारा भी अक्सर गलत समझा जाता है। धीरे-धीरे यह गलतफहमी विश्वास और आत्मीयता को खत्म कर देती है, और रिश्ते सिर्फ़ औपचारिकता बनकर रह जाते हैं।

इस स्थिति को बदलने के लिए हमें कई स्तरों पर बदलाव लाना होगा। सबसे पहले, हमें यह समझना होगा कि भावनात्मक और यौन ज़रूरतें सार्वभौमिक हैं इनमें लिंग का कोई भेद नहीं होना चाहिए। लड़कों को भी यह हक़ मिलना चाहिए कि वे बिना डर के अपनी भावनाएँ साझा कर सकें। परिवारों, स्कूलों और समाज को ऐसा माहौल देना होगा जहाँ भावनात्मक साक्षरता (Emotional Literacy) को बुद्धिमत्ता जितना ही महत्व मिले।

रिश्तों में संवाद और सहानुभूति सबसे ज़रूरी हैं। दोनों पार्टनरों को यह समझना होगा कि नज़दीकी की इच्छा सिर्फ़ शारीरिक नहीं होती, वह भावनात्मक जुड़ाव से भी जन्म लेती है। जब लड़के बिना डर के अपने दिल की बातें कह पाते हैं, तो वे मानसिक रूप से हल्के और रिश्तों में ज़्यादा ईमानदार हो जाते हैं।

इसके साथ-साथ, मीडिया और शिक्षा को भी यह सिखाना होगा कि लड़के सिर्फ़ “शारीरिक भूख” नहीं रखते वे भी उतने ही संवेदनशील और प्रेम करने वाले इंसान हैं। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि प्यार और अपनापन लिंग से परे इंसानियत की ज़रूरतें हैं। मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी इस विषय को गंभीरता से लेना होगा।

जो लड़के अपनी भावनाएँ दबाते हैं, उन्हें काउंसलिंग, थेरेपी और सुरक्षित बातचीत के स्थान दिए जाने चाहिए। उन्हें यह सिखाया जाना चाहिए कि मदद माँगना कमजोरी नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान का संकेत है।अंततः, यह दोहरा मापदंड समाज की संरचना और सोच की खामियों का परिणाम है।

प्यार, इच्छा और भावनाएँ ये सभी इंसान की मूल ज़रूरतें हैं।लिंग यह तय नहीं कर सकता कि कौन-सी भावना “सही” है और कौन-सी “गलत।”अगर हम में बराबरी चाहते हैं, तो लड़कों को भी वही सम्मान और समझ देनी होगी जो लड़कियों को दी जाती है।

जब समाज लड़कों को भी अपनी भावनाओं के साथ ईमानदार होने की आज़ादी देगा, तभी वे सच्चे रिश्ते बना पाएँगे और मानसिक रूप से स्वस्थ रह पाएँगे।सहानुभूति, समझ और खुला संवाद यही वह रास्ता है जो हमें एक संतुलित और संवेदनशील समाज की ओर ले जाएगा,जहाँ प्यार और आत्मीयता को जज नहीं, बल्कि सेलिब्रेट किया जाएगा।