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क्यों हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें पीछे छोड़ रही है? – नेताओं और जनता के बीच बढ़ता फासला
10/12/2025


भारत एक ऐसा देश, जहाँ हर गली, हर गाँव में उम्मीदें जन्म लेती हैं। जहाँ हर माता-पिता अपने बच्चों के लिए अच्छे भविष्य के सपने देखते हैं। लेकिन इन सपनों और हक़ीक़त के बीच एक गहरी खाई है। यह खाई हमारे स्कूलों, हमारे सिस्टम और हमारे नेताओं के रवैये से बनती है।
पिछले दस वर्षों (2014-15 से 2023-24) में भारत के सरकारी स्कूलों की संख्या में 8% की गिरावट आई है। लगभग 89,441 स्कूल बंद या मर्ज हो गए। सरकारी स्कूलों की संख्या 11,07,101 से घटकर 10,17,660 रह गई।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश इस गिरावट के सबसे बड़े उदाहरण बने। इन दोनों राज्यों में क्रमशः 25,126 और 29,410 सरकारी स्कूल कम हुए – यानी कुल गिरावट का 60%, वहीं, बिहार ने उम्मीद जगाई। वहाँ सरकारी स्कूल 74,291 से बढ़कर 78,120 हो गए – 5% की वृद्धि।
लेकिन स्कूल गिनने से ज़्यादा दर्दनाक तस्वीर इन स्कूलों के भीतर है। 75% सरकारी स्कूल बुनियादी ढांचे के मानकों को पूरा नहीं करते। कई स्कूलों में केवल एक शिक्षक पूरे स्कूल को पढ़ा रहा है। बच्चों को डिग्री तो मिल जाती है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं। नतीजा? हज़ारों-लाखों युवा पढ़-लिखकर भी बेरोज़गार हैं, क्योंकि उनका पाठ्यक्रम आज की दुनिया की ज़रूरतों से मेल नहीं खाता। और यही वह जगह है जहाँ राजनीति सबसे बड़ा धोखा देती है।
नेता मंच से कहते हैं – “देश में ही पढ़ाई करो, यहीं अवसर हैं।” लेकिन उनके अपने बच्चे विदेशों में पढ़ रहे होते हैं, दुनिया की बेहतरीन यूनिवर्सिटियों में, आधुनिक सुविधाओं के बीच। वे जानते हैं कि वहाँ शिक्षा सिर्फ़ किताबों का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य की तैयारी है। यहाँ आम जनता नेताओं के नाम पर लड़ती है, मरती है, धर्म और जाति पर बँटती है। लेकिन नेता अपने बच्चों को उस सिस्टम से बचाते हैं जो उन्होंने खुद आम जनता के लिए बनाया है।
सच यह है कि पढ़ा-लिखा इंसान मंदिर-मस्जिद के लिए नहीं लड़ता। वह अपने हक़ के लिए लड़ता है – अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था, सड़कें, रोज़गार, साफ़ पानी। वह जानता है कि असली लड़ाई धर्म या जाति की नहीं, बल्कि हक़ और इन्फ्रास्ट्रक्चर की है।
शिक्षा सिर्फ़ डिग्री नहीं है। यह सोचने, सवाल करने और अपने अधिकारों के लिए खड़े होने की क्षमता है। यही वजह है कि शिक्षित व्यक्ति नेताओं के वादों और धर्म की राजनीति को पहचान लेता है। आज भारत से हर साल लाखों लोग विदेश जा रहे हैं। 2025 तक लगभग 18 लाख लोग देश छोड़कर जा चुके हैं, जिनमें बड़ी संख्या highly educated youth की है। यह ब्रेन ड्रेन सिर्फ़ नौकरी की तलाश नहीं, बल्कि बेहतर सिस्टम की तलाश है।
वे जानते हैं कि जहाँ शिक्षा का स्तर ऊँचा होगा, जहाँ नेताओं के बच्चों और आम जनता के बच्चों के बीच फासला नहीं होगा, वहीं सच्चा भविष्य है। हमारे लिए सबसे ज़रूरी है यह समझना कि बदलाव सिर्फ़ वोट डालकर नहीं होगा। बदलाव तब होगा जब हम अपनी प्राथमिकताएँ बदलेंगे। जब हम धर्म और जाति के बजाय शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, और विकास के मुद्दों पर सवाल करेंगे।
जब हर भारतीय यह तय करेगा कि असली लड़ाई मंदिर-मस्जिद के लिए नहीं, बल्कि एक मजबूत, न्यायपूर्ण और बराबरी वाले समाज के लिए है। यही असली देशभक्ति है। यही वह रास्ता है जिस पर चलकर हम अपने बच्चों को एक ऐसा भारत दे सकते हैं जहाँ उन्हें विदेश भागना न पड़े, जहाँ नेताओं और जनता के बीच यह खाई न हो।